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Friday, May 2, 2008

विकलांगों के अधिकार, एक और कदम

3 अप्रैल 2008 को इक्‍वाडोर के संयुक्‍त राष्‍ट्र के 'विकलांग व्‍यक्तियों के अधिकार' कन्‍वेंशन पे हस्‍ताक्षर करने के साथ ही यह सुनिश्चित हो गया कि 3 मई 2008 से यह कार्यकारी शक्तियों के रूप में परिवर्तित हो जायेगाविकलांगतापूर्ण व्‍यक्तियों के अधिकारों का संयुक्‍त राष्‍ट्र कन्‍वेंशन एक अन्‍तर्राष्‍ट्रीय समझौता है, जो पूरी दुनिया में विकलांग व्‍यक्तियों के अधिकारों और मानसम्‍मान की रक्षा करने के लक्ष्‍य को लेकर हुआ। य‍ह कन्‍वेंशन विश्‍व की लगभग 10 प्रतिशत आबादी यानी विकलांग व्‍यक्तियों की आवाज को मजबूती प्रदान करता है। शायद ही पहले कभी किसी अंतर्राष्‍ट्रीय समझौते ने इस प्रकार से विकलांगों के अधिकारों को मान्‍यता दी हो, जैसी कि इस कन्‍वेंशन में तैयार की गई। इस शताब्‍दी के पहले मानवाधिकार कन्‍वेंशन को काफी तेजी से निपटाया गया, चाहे वह मसौदा लेखन का मसला रहा हो या सभी देशों द्वारा इसको मान्‍यता देना।


संयुक्‍त राष्‍ट्र के 'विकलांग व्‍यक्तियों के अधिकार' कन्‍वेंशन का उद्देश्‍य विकलांग व्‍यक्तियों के मानवाधिकारों को बढ़ाना, बचाव करना और यह सुनिश्चित करना, कि वे भी समानता पूर्वक जीवन का आंनद ले। यह कन्‍वेंशन विकलांगजनों के अधिकारों की व्‍यापक रूप से गांरटी लेता है। इसमें कई महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों जैसे शिक्षा, भेदभाव, स्‍वास्‍थ्‍य, रोजगार, सुगमतापूर्वक शरीरिक एवं कार्यकारी पहुंच, निजी गतिशीलता, पुनर्वास, राजनीति में भागीदारी, समानता इत्‍यादि शामिल किए गए है।


उदाहरण के तौर पर यदि कोई देश इस समझौते पर हस्‍ताक्षर करता है तो उस देश के विकलांगता से ग्रसित बच्‍चों को भी सार्वजनिक स्‍कूलों में पढ़ने का अधिकार होगा। यह सुनिश्चित करने के लिए विकलांगता से ग्रसित बच्‍चे पढ़ाई का लाभ उठा सके, सार्वजनिक स्‍कूलों को भी अपनी कक्षाओं तथा पढ़ाई के तरीकों में बदलाव लाना होगा।


3 मई 2008 का दिन विकलांगता अधिकार आंदोलनो से जुड़े व्‍यक्तियों के लिए एक महत्‍वपूर्ण दिन बन जाता है। अब भारत को भी अपने वर्तमान विकलांगता कानून जो विकलांग व्‍यक्तियों (समान अवसर, सुरक्षा का अधिकार और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 और नीतियों में संशोधन करना होगा, ताकि वे कन्‍वेंशन के प्रावधानों से मेल खा सके जिस पर भारत ने 2 अक्‍टूबर 2007 में हस्‍ताक्षर किए है। इस कानून के एक दशक से भी ज्‍यादा पहले पारित हो जाने के बाद भी इसका क्रियान्‍वयन चिंताजनक रूप से नाकाफी है। यद्यपि कानून के सभी प्रावधान सशक्‍तीकरण करने वाले है और सरकार के उपर विकलांगजनों की पूर्ण भागीदारी के लिए सहूलियते प्रदान करने पर जोर डालते है, प‍रन्‍तु कई प्रावधानों के पहले 'अपनी आर्थिक क्षमताओं की सीमाओं के अंदर' जैसा लिखा होने और इसमें किसी भी प्रकार के दंण्‍डनीय प्रावधान के न होने की वजह से इसका शक्तिशाली रूप से पालन नहीं हो पा रहा है।


आजादी के 60 वर्षो बाद आज भी भारत में मौजूद सात करोड़ विकलांगजनों के साथ दोयम दर्जे का व्‍यवहार किया जाता है, इन लोगों के साथ अलगाव और भेदभाव आम बात है। ऐसे समय में जब दिन-प्रतिदिन नई - नई त‍कनी‍कों का विकास हो रहा है और अनेक बाधाओं के बावजूद इन तकनीकों की मदद से विकलांग जन कदम से कदम मिला कर चलने को बेताब है, आज भी देश की बहुसख्‍यंक आबादी इन्‍हें दया/घृणा या कल्‍याण का पात्र मानती है।


केवल दया, दान और कल्‍याण की भावना रखने से ही विकलांगजनों का उत्‍थान नहीं होगा उन्‍हें समाज में समानता देनी होगी। विकलांगता अधिकार आंदोलन दान, दया और कल्‍याण आधारित नीतियों की अपेक्षा अधिकार आधारित नीतियों को अपनाने पर बल देता है। जहां दान, दया या कल्‍याण आधारित नीतियां विकलांगजनों को सहानुभूति और दया के पात्र के रूप में देखता है, वही विकलांगता अधिकार आधारित नीतियां विकलांगजनों को यातायात, शिक्षा, समानता, सामाजिक सुरक्षा, रोजगार, बाधा रहित वातावरण इत्‍यादि जैसे विभिन्‍न मानकों की व्‍यवस्‍था के लिए राज्‍यों पर उचित कदम उठाने के लिए दबाव डालता है, जिसमें दया और सहानुभूति की जरूरत नहीं है।


अब जबकि यह कन्‍वेंशन 3 मई 2008 से एक कार्यकारी शक्ति के रूप में परिवर्तित हो जायेगा, यह महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि विकलांगता अधिकार आंदोलनों से जुड़ी संस्‍थाएं, व्‍यक्ति किस तरह से इसका लाभ उठाते हुए सरकार पर दबाव डालकर इसको कार्यान्‍वित करने में कितना सफल हो पाते है। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि विकलांगजनों के लिए यह कन्‍वेंशन कितना लाभकारी साबित होगा, या फिर यह कुछ संस्‍थाओं की मौज-मस्‍ती के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्र का पारितोषिक अनुदान बनकर रह जायेगा।


Tuesday, January 1, 2008

मै भी पढ़-लिख सकती हूँ।

''जी हॉं मै भी पढ़ सकती हूँ लोगों की भावनाओं को, उनके अनुभवों को, उनकी सफलताओं को, समाचार को और भी बहुत कुछ। मुझे भी लिखना आता है अपने विचारो को, अपनी भावनाओं को, मै भी लिख कर अपनी भावनाओं, विचारों को सभी लोगों के साथ बांट सकती हूँ और अपना योगदान दे सकती हूँ संसार को आगे बढ़ाने में, समाज को बेहतर बनाने में। आप सोच रहे होंगे कि इसमें कौन सी ऐसी नयी बात है जिसके लिए मैं उत्साहित हूँ - एक पढ़े-लिखे व्यक्ति से सब लोग इसी तरह की उम्मीद रखते है।  लेकिन नहीं यहां पर एक बडा+ अंतर है - मैं दृष्टिहीन पैदा हुई थी। आज मै अगर ये सब कर पा रही हूँ तो सिर्फ इस लिए क्योंकि मैंने ब्रेल सीखी है। मैं धन्यवाद देती हूँ उस महान लुईस ब्रेल को जिसने अपनी छोटी सी उम्र में ही इस पद्धति का आविषकार किया।'' - गीता  
छः उभरे हुए बिन्दुओं के विभिन्न संयोजनों का इस्तेमाल करके लिखी पढ़ी जाने वाली लिपि ही ब्रेल है। १८२९ में लुईस ब्रेल ने उभरे हुए बिन्दुओं के माध्यम से शब्द, संगीत, गीत लिखने की एक नयी विधि प्रकाशित की, जिसे दृष्टिहीनों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा। 
लुईस ब्रेल का जन्म ४ जनवरी १८०९ में फ्रांस के एक छोटे से शहर कोउपवरे में एक जूता बनाने वाले के घर हुआ था। ३ साल की उम्र में खेल-खेल के दौरान ही लुईस ब्रेल की एक आंख चमड़े में छेद करने वाले औजार से घायल हो गई और धीरे-धीरे संक्रमण दूसरी आंख में भी हो गया जिसकी वजह से वे पूरी तरह से दृष्टिहीन हो गयें। इस ३ वर्षीय दृष्टिहीन बच्चें नें १५ वर्ष की उम्र तक पहुचते-पहुचते ब्रेल विधि का आविषकार कर लिया था। आज इस विधि ''ब्रेल'' का इस्तेमाल लिखने पढ़ने के लिए लगभग सभी देशों की भाषाओं में दृष्टिहीनों द्वारा किया जा रहा है।  
ब्रेल पद्धति का विकास होने से पहले दृष्टिहीनों को पढ़ने लिखने में बहुत समय लगता था क्योंकि वे अक्षरों को उभार कर लिखते और पढ़ते थें। ब्रेल पद्धति के विकास से लिखने और पढ़ने में कम समय लगने लगा और पहले की अपेक्षा लिखना-पढ़ना बहुत आसान हो गया। आधुनिक युग में बहुत सी नई तकनीकों का विकास हुआ जिसने दृष्टिहीनों का लिखने-पढ़ने का काम और आसान कर दिया। आधुनिक युग में ब्रेल पद्धति से लिखने-पढ़नें के लिए बहुत से उपकरणों का इस्तेमाल होता है। कुछ तो ऐसें है जिनसे ब्रेल में किताबे तक बन जाती है और कुछ जो कि कम्प्यूटर/ इन्टरनेट के माध्यम से उपलब्ध जानकारी को पढ़ने में मदद करते हैं। कुछ उपकरण ऐसे है जो इस्तेमाल में आसान होने के साथ-साथ किफायती भी हैं तो कुछ ऐसे जिनको इस्तेमाल करने के लिए काफी मेहनत करती पड़ती है और महंगे भी हैं। वर्तमान समय में कम्प्यूटर के माध्यम से अक्षरों को ब्रेल में बदल कर, ब्रेल प्रिन्टर/इम्बोसर का इस्तेमाल करके बहुत आसानी से किताबो, पत्रिकाओं का मुद्रण किया जाने लगा है। 
कुछ प्रमुख उपकरण जिनका उपयोग बहुत से दृष्टिहीन अपने स्कूल के काम, नौकरी के दौरान या फिर अपने व्यक्तिगत काम करने में करते हैं वे हैः - ब्रेल स्लेट और स्टाइलस, ब्रेल डिसप्ले, ईलेक्ट्रानिक बे्रल नोट-टेकर्स, ब्रेल प्रिन्टर, ब्रेल राईटर इत्यादि।   
दृष्टिहीनों में कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ने तथा असाधारण व्यक्तित्व के धनी कुछ दृष्टिहीनों का बिना ब्रेल सीखे ही जीवन में एक महत्वपूर्ण मुकाम को हासिल करने के साथ-साथ यह गलतफहमी भी बढ़ने लगी कि ब्रेल दृष्टिहीनों के लिए महत्वहीन हो गई है। यथार्थ में ऐसा नहीं है। यदि देखा जाये तो ब्रेल आज भी दृष्टिहीनों के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने के साथ-साथ उनमें कौच्चल तथा कुछ कर गुजरने की तमन्ना का मूल आधार बना हुआ है। जिन दृष्टिहीनों को ब्रेल अच्छी तरह से आती है उनकों जीवन के हर क्षेत्र में मदद मिलती है चाहे वो नौकरी कर रहे हो या पढ़ाई या फिर संगीत। ब्रेल आधारित बहुत सारे छोटे-छोटे उपकरण भी उपलब्ध है जिनका इस्तेमाल कही भी किया जा सकता है। चाहे वो नोट्स लेने में ही क्यो न हो।   
वास्तव में दृष्टिहीनों के जीवन में ब्रेल एक अहम स्थान रखती है। यह न सिर्फ उन्हें शिक्षित बनाती है बल्कि उन्हें आजादी का, बराबरी का भी एहसास कराती है। ब्रेल कुंजी है रोजगार की, आजादी की, और सफलता की। यह बहुत जरूरी है कि प्रत्येक ऐसे बच्चे को जो कि दृष्टिहीन है ब्रेल सिखाया जाय।  

Monday, December 3, 2007

3 दिसंबर – विश्‍व विकलांग दिवस

विकलांगों की वर्तमान स्थिति पर एक नजर

आधुनिक युग में मुक्ति आंदालनों, स्‍वाधीनता संग्रामों ने लोकतांञिक समाज की अवधारणा को जन्‍म दिया और राष्‍ट्र राज्‍य का अभ्‍युदय भी इसी प्रक्रिया का अंग था। द्वितीय विश्‍व युध्‍द की समाप्ति के पश्‍चात राष्‍ट्र राज्‍यों ने एक लोक कल्‍याणकारी भूमिका निभाने का मन बनाया था – आजाद भारत भी उसमें शामिल था।

महात्‍मा गांधी, भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस तथा स्‍वाधीनता संग्राम में अर्जित मूल्‍य, भारतीय संविधान, सभी का यह मानना तथा कहना था कि समाज के कमजोर, गरीब तथा अलग थलग पड़े हिस्‍से को विशेष महत्‍व तथा प्राथमिकता दी जाये।

स्‍वाधीनता के पश्‍चात इस दिशा में पहल भी की गयी कमजोर वर्ग के उत्‍थान विकास के लिए नियम – कानून और योजनाएं बनायी गयीं। काफी सीमा तक उन पर अमल भी हुआ परंतु शारीरिक, मानसिक रूप से विकलांग तबके पर सरकार तथा समाज का ध्‍यान कम ही जा पाया। बेहतरी और सुविधाओं से जुड़ी घोषणाएं तो हुई परंतु समाज के इस तबके तक उसका लाभ नहीं पहुंच पाया और ना ही समाज की सोच में कोई बदलाव आ पाया। इच्‍छाशक्ति की कमी तथा सत्‍ता प्रतिष्‍ठान और उसके कारिंदों की सोच इसका मूल कारण रही है।

सन् 1995 में विकलांगों की सहायता के लिए पास किए गए The Persons with Disabilities (Equal Opportunities, Protection of Rights and Full Participation) Act, 1995 में भी रोजगार को बढ़ावा देने का प्रावधान है। सभी प्रकार की सरकारी नौकरीयों में 3 प्रतिशत का कोटा विकलांगों के लिए निधार्रित किया गया। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों के लिए गरीबी हटाओं योजना के तहत भी कुल बजट का 3 प्रतिशत विकलांगों के लिए सुनिश्‍चित किया गया जिसे कुछ राज्‍य काफी हद तक स्‍वर्ण जयंती पुनर्वास योजना द्वारा विकलांगों तक पहुचाने में सफल रहें। लेकिन विकलांगों के एक बड़ तबके को जानकारी के आभाव में इस तरह की सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। स्‍वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए भी बहुत सारी योजनाएं बनायी गई जिनमें से कई योजनाओं कों लागू करने और वित्‍तीय सहयोग प्रदान करने के लिए National Handicap Finance Development Corporation का गठन किया गया। देश के हर राज्‍य में विकलांगों के लिए रोजगार प्रदान करने हेतु विशेष रूप से केन्‍द्रों का गठन किया गया है, जिनका मुख्‍य उदेश्‍य ही विकलांगों को रोजगार उपलब्‍ध कराने में मदद करना है।

यदि हम सिर्फ दृष्टिहीनों की बात करे तो सरकारी और गैरसरकारी संगठनों के अथक प्रयास के बावजूद अभी तक हमारे देश में दृष्टिहीनों को रोजगार उपलब्‍ध करा पाने की योजनाए आपेक्षित सफल नहीं प्राप्‍त हो पाई है। इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए कि इन सामूहिक प्रयासों की वजह से ही स्थिति में पहले की तुलना में काफी बदलाव देखने को मिलता है।

2001 की जनगणना के अनुसार आगरा जनपद में 59065 दृष्टिबाधित विकलांग थे जिनमें से 38957 लोग किसी भी प्रकार का कोई काम नहीं कर रहें थे। जनपद आगरा 6 तहसील और 15 ब्‍लाकों में बटा हुआ है जिसमें 114 न्‍याय पंचायते और 636 ग्राम सभाएं हैं। एक अनुमान के मुताबिक आगरा में 6 से 14 वर्ष की आयु के लगभग 1400 बच्‍चें है जो कि सर्व शिक्षा अभियान द्वारा चालाऐ जा रहे सबको शिक्षा कार्यक्रम के तहत पढ़ाई कर रहे हैं। इसी प्रकार लगभग 40 दृष्टिबाधित विकलांग रूनकता स्थिति सूरदास स्‍मृति नेत्रहीन शिक्षण प्रशिक्षण स्‍कूल में पढ़ाई कर रहें हैं। लगभग एक वर्ष पूर्व नगला अजीत पुरा में खुले राधास्‍वामी दृष्टिबाधितार्थ संस्‍थान में भी कुछ बच्‍चें पढ़ाई कर रहें है। आश्‍चर्यजनक रूप से आगरा में दृष्टिहीन लड़कियों के लिए किसी भी प्रकार की पढ़ाई की कोई विशेष व्‍यवस्‍था नहीं हैं। त‍कनीकि/व्‍याव‍सायिक शिक्षा की बात करे तो स्थिति और भी खराब है, इन प्रशिक्षणों के नाम पर इन विद्यालयों में कुर्सी बुनाई, मोमबत्‍ती, वाशिंग पाउडर, हथकरघा, शार्ट हैण्‍ड, टकंड इत्‍यादि का प्रशिक्षण दिया जा रहा हैं। देखा जाए तो नियमित रूप से उच्‍च शिक्षा या व्‍यावसायिक शिक्षा प्राप्‍त कर रहे दृष्टिहीनों की सख्‍या आगरा के कुल दृष्टिबाधितों की तुलना में न के बराबर है।

इन दृष्टिहीनों से जो कि शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्‍त कर रहे है या कर चुके है, से बातचीत के बाद किसी को भी यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि दृष्टिहीनों की स्थिति आगरा शहर में बहुत ही दयनीय है, रोजगार के अवसर न के बराबर है। तेजी से बढ़ते बाजारीकरण के इस दौर में दृष्टिहीनों के लिए रोजगार की संभावनाएं बहुत ही सीमित है और वर्तमान समय के इस प्रतिस्‍पर्धी युग में जो तकनीकी प्रशिक्षण इनको मिल पा रहा है वो रोजगार दिलाने में पूरी तरह से असफल माना जायेगा।

यदि हम दृष्टिहीनों की वर्तमान स्थिति पर विचार करे तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि आजादी के 60 वर्षो के बाद भी दृष्टिहीनों को समाज की मुख्‍यधारा से जोड़ने में असफल रहें हैं। आज भी दृष्टिहीनों को समाज में दया या घृणा के पात्र के रूप में देखा जाता है।

रोजगार न मिल पाने का एक बड़ा कारण दृष्टिहीनों की समाज में स्‍वीकृति न होना पाना है। जब तक समाज का वो तबका जो कि किसी न किसी रूप से दृष्टिहीनों के जीवन को प्रभावित करता है इनकी मौजूदगी को स्‍वीकार नहीं करेगा तब तक किसी भी तरह के बदलाव की कल्‍पना करना भी बेमानी ही होगा।

जानकारी के अभाव में ज्‍यादातर लोग ये मानने को तैयार नहीं होते कि दृष्टिहीन भी उन्‍हीं की तरह से गुणवत्‍तापूर्वक कार्य को सम्‍पन्‍न कर सकते हैं। बड़ी संख्‍या में दृष्टिहीनों को बिना उनकी क्षमताओं का परखे हुए ही रोजगार के‍ लिए अयोग्‍य घोषित कर दिया जाता है क्‍योंकि वो दृष्टिहीन है। कही – कहीं तो साक्षात्‍कार तक के लिए भी आमंत्रि‍त नहीं किया जाता। हकीकत में ऐसा नहीं है आज नई – नई तकनीकों का इस्‍तेमाल करते हुए ये दृष्टिहीन लोग भी उसी तरह से कार्य सम्‍पन्‍न कर सकते है जैसे कि एक आम आदमी करता है।

आज जरूरत इस बात की है कि समाज को इनके प्रति जागरूक बनाने के साथ – साथ इनको समान अवसर और कौशल दिलाया जाएं। विकलांगों को दया की नहीं, बल्कि अवसरों की उपलब्‍धता की जरूरत है जिससे वे अपनी उपयोगिता भी सिद्व कर सकें और समाज की मुख्‍यधारा से जुड़ सके। विकलांगों में इन उपलब्‍ध अवसरों में अपनी भूमिका निभा सकने योग्‍य क्षमता पैदा करने की जिम्‍मेदारी हम सबको उठानी होगी।

विश्‍व विकलांग दिवस के अवसर पर हम सभी लोगों को आगे आकर ये सुनिश्‍चित करना चाहिए कि विकलांगो को न सिर्फ समाज में समान अवसर, पूर्ण भागीदारी और उनके अधिकार मिले बल्कि शिक्षा, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और बाधा–मुक्‍त बातावरण भी मिले।