संयुक्त राष्ट्र के 'विकलांग व्यक्तियों के अधिकार' कन्वेंशन का उद्देश्य विकलांग व्यक्तियों के मानवाधिकारों को बढ़ाना, बचाव करना और यह सुनिश्चित करना, कि वे भी समानता पूर्वक जीवन का आंनद ले। यह कन्वेंशन विकलांगजनों के अधिकारों की व्यापक रूप से गांरटी लेता है। इसमें कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे शिक्षा, भेदभाव, स्वास्थ्य, रोजगार, सुगमतापूर्वक शरीरिक एवं कार्यकारी पहुंच, निजी गतिशीलता, पुनर्वास, राजनीति में भागीदारी, समानता इत्यादि शामिल किए गए है।
उदाहरण के तौर पर यदि कोई देश इस समझौते पर हस्ताक्षर करता है तो उस देश के विकलांगता से ग्रसित बच्चों को भी सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ने का अधिकार होगा। यह सुनिश्चित करने के लिए विकलांगता से ग्रसित बच्चे पढ़ाई का लाभ उठा सके, सार्वजनिक स्कूलों को भी अपनी कक्षाओं तथा पढ़ाई के तरीकों में बदलाव लाना होगा।
3 मई 2008 का दिन विकलांगता अधिकार आंदोलनो से जुड़े व्यक्तियों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन बन जाता है। अब भारत को भी अपने वर्तमान विकलांगता कानून जो विकलांग व्यक्तियों (समान अवसर, सुरक्षा का अधिकार और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 और नीतियों में संशोधन करना होगा, ताकि वे कन्वेंशन के प्रावधानों से मेल खा सके जिस पर भारत ने 2 अक्टूबर 2007 में हस्ताक्षर किए है। इस कानून के एक दशक से भी ज्यादा पहले पारित हो जाने के बाद भी इसका क्रियान्वयन चिंताजनक रूप से नाकाफी है। यद्यपि कानून के सभी प्रावधान सशक्तीकरण करने वाले है और सरकार के उपर विकलांगजनों की पूर्ण भागीदारी के लिए सहूलियते प्रदान करने पर जोर डालते है, परन्तु कई प्रावधानों के पहले 'अपनी आर्थिक क्षमताओं की सीमाओं के अंदर' जैसा लिखा होने और इसमें किसी भी प्रकार के दंण्डनीय प्रावधान के न होने की वजह से इसका शक्तिशाली रूप से पालन नहीं हो पा रहा है।
आजादी के 60 वर्षो बाद आज भी भारत में मौजूद सात करोड़ विकलांगजनों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है, इन लोगों के साथ अलगाव और भेदभाव आम बात है। ऐसे समय में जब दिन-प्रतिदिन नई - नई तकनीकों का विकास हो रहा है और अनेक बाधाओं के बावजूद इन तकनीकों की मदद से विकलांग जन कदम से कदम मिला कर चलने को बेताब है, आज भी देश की बहुसख्यंक आबादी इन्हें दया/घृणा या कल्याण का पात्र मानती है।
केवल दया, दान और कल्याण की भावना रखने से ही विकलांगजनों का उत्थान नहीं होगा उन्हें समाज में समानता देनी होगी। विकलांगता अधिकार आंदोलन दान, दया और कल्याण आधारित नीतियों की अपेक्षा अधिकार आधारित नीतियों को अपनाने पर बल देता है। जहां दान, दया या कल्याण आधारित नीतियां विकलांगजनों को सहानुभूति और दया के पात्र के रूप में देखता है, वही विकलांगता अधिकार आधारित नीतियां विकलांगजनों को यातायात, शिक्षा, समानता, सामाजिक सुरक्षा, रोजगार, बाधा रहित वातावरण इत्यादि जैसे विभिन्न मानकों की व्यवस्था के लिए राज्यों पर उचित कदम उठाने के लिए दबाव डालता है, जिसमें दया और सहानुभूति की जरूरत नहीं है।
अब जबकि यह कन्वेंशन 3 मई 2008 से एक कार्यकारी शक्ति के रूप में परिवर्तित हो जायेगा, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि विकलांगता अधिकार आंदोलनों से जुड़ी संस्थाएं, व्यक्ति किस तरह से इसका लाभ उठाते हुए सरकार पर दबाव डालकर इसको कार्यान्वित करने में कितना सफल हो पाते है। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि विकलांगजनों के लिए यह कन्वेंशन कितना लाभकारी साबित होगा, या फिर यह कुछ संस्थाओं की मौज-मस्ती के लिए संयुक्त राष्ट्र का पारितोषिक अनुदान बनकर रह जायेगा।